Biofloc Kya hai
बायॉफ्लोक (Biofloc Fish Farming) प्रौद्योगिकी एक गहन वर्ग का मछली पालन व्यवसाय है। यह एक नवाचार, छोटी भूमि, तेजी से मछली की खेती और कम लागत वाली प्रभावी तकनीक है जो विषाक्त पदार्थों जैसे कि एक चित्र, अर्या, कृष्ण, इस्तेमाल किए गए उत्पादों में तब्दील हो सकती है, वह उत्पाद है जिसे उत्पादन में बदल दिया जा सकता है।
बसंत कुमार, गिरियक: पोखरपुर पंचायत के सिक्करपुर गांव के 38 साल के युवा किसान निशांत गौरव उर्फ गुड्डू पूरे जिले के मछली पालकों के लिए नजीर बन गए हैं। इन्होंने जिले में पहली बार मछली पालन की आधुनिकतम तकनीक बायोफ्लॉक विधि को अपनाया है। जिसमें कम खर्च, कम चारा, कम जगह और कम पानी में मछली का ज्यादा उत्पादन संभव है। निशांत ने गांव में ही अपनी जमीन पर छह टैंक लगाए हैं। बताते हैं कि एक टैंक से साल में कम से कम 12 सौ किलो मछली का उत्पादन करेंगे। टैंक में सिधी, पंगास, तिलापिया व देसी मांगुर का जीरा डाला है। जीरा कोलकाता से खरीदकर मंगवाया है। जिसकी चर्चा पूरे जिले में है। न्यू इंडिया मूवमेंट 2017 के अंतर्गत नीली क्रांति को गति देने के लिए इसकी शुरुआत की गई है। शनिवार को मत्स्य पालन विभाग के अधिकारी जिले भर के कई किसानों को लेकर सिक्करपुर गांव पहुंचे और उन्हें बायोफ्लॉक विधि से मत्स्य उत्पादन के तौर-तरीके दिखाकर प्रेरित किया। मत्स्य पालन विभाग ने इस तकनीक को बढ़ावा देने के लिए किसानों के प्रशिक्षण और सब्सिडी का भी प्रावधान किया है।
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बिना मिट्टी के उपयोग के मछली पालन संभव, पानी का भी दुबारा उपयोग
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मत्स्य प्रसार पर्यवेक्षक आनंद कुमार ने बताया कि बायोफ्लॉक विधि में बिना मिट्टी के उपयोग के मत्स्य पालन होगा। पानी में नाइट्रेट, नाइट्राइट व अमोनिया को मेंटेन करते हुए बॉयोफ्लॉक तैयार किया जाता है। इसमें बिहार सरकार पूरा सहयोग कर रही है। तालाबों की अपेक्षा इसमें बहुत कम खर्च होता है। बॉयोफ्लॉक के पानी को रिसाइकिल करके दुबारा उपयोग किया जा सकता है। इसके अपशिष्ट पदार्थ को रिसाइकल करके मछलियों के लिए चारा तैयार किया जाता है। इससे चारे के खर्च में करीब 50 प्रतिशत की बचत होगी। मत्स्य विभाग के कनीय अभियंता जनार्दन प्रसाद कहा कि वे राज्य सरकार की ओर से मत्स्यपालकों को प्रशिक्षण देने आए हैं। बायोफ्लॉक की नई तकनीक से कम जगह में अच्छी मात्रा में मछली का उत्पादन किया जा सकता है। टैंक बनाने में तालाब से काफी कम खर्च होता है। पानी की ज्यादा खपत नहीं होती है। जल का संरक्षण भी होता है।
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दो से सात रुपए तक कोलकाता से खरीदा जीरा, 125 से दो सौ तक बिक्री
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जागरण से विशेष बातचीत में सिक्करपुर के किसान और नूरसराय में एक कॉलेज के सेक्रेटरी मोहन प्रसाद के पुत्र निशांत गौरव ने बताया कि उन्होंने बिना किसी सरकारी सब्सिडी का इंतजार किए बीते साल अप्रैल माह से बायोफ्लॉक विधि से मछली उत्पादन शुरू कर दिया। पहले इस विधि के बारे में पूरी जानकारी हासिल की। फिर दिल्ली और कोलकाता गए। दोनों शहरों में 3-3 टैंक बनवाए। मोटर महाराष्ट्र से मंगवाया। कोलकाता से सिधी, पंगास, तिलापिया व देसी मांगुर के जीरा मंगवाए। मांगुर व सिधी सात रुपए प्रति पीस और तिलापिया व जाफर दो रुपए अदद मिली। बाजार में प्रति किलो तिलापिया 150 रुपए, पांगस 125 रुपए और रोहू व कतला दो सौ रुपए किलो बिकती है। एक टैंक से साल में 12 सौ किलो तक मछली उत्पादित कर सकते हैं। एक टंकी चार मीटर के व्यास में बनाई जाती है। मात्र चार डिसमिल यानी 918 वर्ग फीट जगह में सभी छह टंकियां स्थापित हैं। इसमें लागत कुल तीन लाख रुपए की आई है। इसी साल 50 टंकी लगाने की योजना है। तब वृहद स्तर पर मछली उत्पादन होने लगेगा। कहा, जिले में उन्नत किस्म के जीरा मिलने लगे तो खर्च में और कमी लाई जा सकेगी।
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इनसेट ::::
10 हजार लीटर पानी में तीन-चार माह में 5-6 क्विटल मछली उत्पादन संभव
फोटो- 21 (कल की फोटो)
संवाद सूत्र, नालंदा : नालंदा थाना क्षेत्र के मोहनपुर मत्स्य हैचरी में सिलाव मत्स्यजीवी सहयोग समिति की ओर से मछली उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया गया। जिसमें मत्स्यजीवी सहयोग समिति के मंत्री शिवनंदन प्रसाद उर्फ शिव जी ने 30 मत्स्यपालकों को बायोफ्लॉक विधि से मछली पालन के तौर-तरीके बताए। उन्होंने बताया कि बायोफ्लॉक विधि से मछली पालन में कम लागत, कम जगह, कम समय तथा कम पानी में भी ज्यादा मछली का उत्पादन किया जा सकता है। उन्होंने बताया कि इसमें 10 हजार लीटर पानी में तीन-चार महीने में ही 5 से 6 क्विटल मछली का उत्पादन किया जा सकता है। बताया कि बायोफ्लॉक विधि से मछली पालन का शुभारंभ डीएम योगेंद्र सिंह की प्रेरणा से 11 जनवरी को किया गया था। कहा, इस तकनीक को बढ़ावा देने में नालंदा के मत्स्य पदाधिकारी उमेश रंजन, आनंद कुमार व मत्स्य विभाग के अभियंता जनार्दन प्रसाद भी काफी मेहनत कर रहे हैं।
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